Lord Of Creater Bramha
ब्रह्मा (ब्रह्म नहीं) हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। ये हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। सृष्टि रचियता से मतलब सिर्फ जीवों की सृष्टि से है। तीनों देवताओं में ब्रह्माजी का चित्रण प्रथम और सबसे वृद्ध देवता के रूप में किया गया है, लेकिन ब्रह्मा को वह दर्जा प्राप्त नहीं है जो विष्णु और शिव को है। वृद्ध पिता की तरह देव परिवार में इनका स्थान उपेक्षित होता गया। ब्रह्माजी तो शिवजी के काल में भी थे और राम के काल में उनके पुत्र वशिष्ठजी के साथ थे। महाभारत काल में भी उन्होंने कृष्ण की मदद की थी।
विष्णु से वैष्णव और भागवत धर्म का सूत्रपात्र होता है तो शिव से शैव धर्म का, जबकि ब्रह्मा के हाथों में वेद ग्रंथों का चित्रण किया गया है। उनकी पत्नीं गायत्री के हाथों में भी वेद ग्रंथ है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह वैदिक धर्म का पालन करते थे। शैव और शाक्त आगम संप्रदायों की तरह ही ब्रह्माजी की उपासना का भी एक विशिष्ट संप्रदाय है, जो वैखानस संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है।
माध्व संप्रदाय के आदि आचार्य भगवान ब्रह्मा ही माने जाते हैं। इसलिए उडुपी आदि मुख्य मध्वपीठों में इनकी पूजा-आराधना की विशेष परम्परा है। देवताओं तथा असुरों की तपस्या में प्राय: सबसे अधिक आराधना इन्हीं की होती है। खैर, आखिर ब्रह्मा को क्यों नहीं पूजा जाता है और क्या माता सरस्वती उनकी पुत्री थीं। जानिए ब्रह्माजी के बारे में ऐसा ही कुछ रहस्य
ब्रह्मा को विश्व के आद्य सृष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ कहते हैं। पुराणों में जो ब्रह्मा का रूप वर्णित मिलता है वह वैदिक प्रजापति के रूप का विकास है। प्राजापति उसे कहते हैं जिससे प्राजाओं की उत्पत्ति हो अर्थात जिससे परिवार, कुल और वंश की वृद्धि हो। ब्रह्मा के पुत्रों को भी प्राजापित कहा जाता है।
ब्रह्माजी देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह हैं। सभी देवता ब्रह्माजी के पौत्र माने गए हैं, अत: वे पितामह के नाम से प्रसिद्ध हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। वे अपने चार हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अक्षरसूत्र, वेद तथा कमण्डलु धारण किए हैं।
यदि हम पश्चिमी धर्म का अध्ययन करेंगे तो ब्रह्मा और उनके कुल के संबंध में वहां भी भिन्न रूप में कहानियां मिलेगी जो ब्रह्मा और उनके कुल की कहानी से मिलती जुलती है। प्रारंभ में चूंकि वंशवृद्धि करना थी और मानव जाति के विस्तार करना था जो सभी ने आपस में ही संबंध बानकर सृष्टि रचना का विस्तार किया था। जैसा कि बाइबिल में उल्लेख मिलता है कि आदम के पुत्रों के पुत्रों और उनके पुत्र-पुत्रियों ने आपस में विवाह करके वंश का विस्तार किया था।
बाइबिल में जिसे उत्पत्ति कथा कहते हैं उसे पुराणों में सृष्टि रचना कथा कहा गया है। ब्रह्मा के पुत्र और पौत्रों के वंश की कथा का विस्तार मिलता है। बहुत से लोग अब्राहम को ब्रह्मा से और नूह को मनु से जोड़कर देखते हैं। कहते हैं कि जब सरस्वती नदी में तूफान शुरू हुआ तब अब्राहम के पिता अपने परिवार के साथ यह क्षेत्र छोड़कर उर प्रदेश में जाकर बस गए थे। ह. अब्राहम (ह. इब्रिहिम) के पिता का नाम तेरह था जिनकी तीन संतानें अब्राहम, नाहूर और हराम। नूह के दूसरे बेटे शेम की नौवीं पीढ़ी में तेरह हुआ।
ब्रह्मा उत्पत्ति कथा : ब्रह्मा की उत्पत्ति जल में उत्पन्न कमल पर हुई। उन्होंने कमल के डंठल के अंदर उतरकर उसका मूल जानने का प्रयास किया लेनिक नहीं जान पाए। तब वह पुन: कमल आकर कमल पर विराजमान होकर सोचने लगे कि मैं कहां से और कैसे उत्पन्न हुआ। तभी एक शब्द सुनाई दिया 'तपस तपस'। तब ब्रह्मा ने सौ वर्षों तक वहीं आंख बंद कर तपस्या की। फिर ब्रह्मा को भगवान विष्णु की प्रेरणा से सृष्टि रचना का आदेश मिला। उन्होंने तब सर्व प्रथम चार पुत्रों की उत्पत्ति की। सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार। ये चारों भी सृष्टि रचना छोड़कर तपस्या में लीन हो गए। अपने पुत्रों की इस हरकत से जब ब्रह्मा क्रोधित हुए तो उनकी भौहों से एक बालक का जन्म हुआ। यह बालक रोने लगा तो इसका नाम रुद्र रख दिया गया। फिर ब्रह्मा ने विष्णुजी की शक्ति से 10 तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। उनके ना म है मारीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, पुलत्स्य, क्रतु, वशिष्ठ, दक्ष, भृगु और नारद। उनके मुख से पुत्री वाग्देवी की उत्पत्ति हुई। फिर ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो अंश किए एक अंश से पुरुषरूप मनु और दूसरे से स्त्री रूप शतरूपा को जन्म दिया। मनु और शतरुपा की संतानों को रहने के लिए श्रीहरि ने वराह रूप धारण कर धरती का उद्धार किया।
सदाशिव और मां दुर्गा : पुराणों ने ब्रह्मा की कहानी को मिथकरूप में लिखा। पुराणों के अनुसार क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की स्वयं उत्पत्ति हुई, इसलिए ये स्वयंभू कहलाते हैं। शिवपुराण अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश के माता पिता सदाशिव और दुर्गा हैं, जो काशी में निवास करते थे। यह कथा इस प्रकार है:- इस आनंदरूप वन काशी में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वररूपी शिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। फिर वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, 'वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम 'विष्णु' विख्यात होगा।'
विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके ब्रह्माजी को अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही उन्हें विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में हिरण्यगर्भ (जल के गर्भ से) ब्रह्मा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी उस कमल के सिवाय दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं मानते थे। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा क्या कार्य है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूं और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है? इस प्रकार संशय में रहने के बाद वे जल में ही तपस्या में लीन हो जाते हैं। बाद में सदाशिव के विभूतिस्वरूप से रुद्र और महेश्वर का जन्म हुआ। देवीभागवत पुराण में सदाशिव पत्नीं देवी दुर्गाजी हिमालय को ज्ञान देते हुए कहती है कि एक सदाशिव ब्रह्म की साधना करो। जो परम प्रकाशरूप है। वही सब के प्राण और सबकी वाणी है। वही परम तत्व है। उसी अविनाशी तत्व का ध्यान करो। वह ब्रह्म ओंकारस्वरूप है और वह ब्रह्मलोक में स्थित है।
ब्रह्मा की पत्नियां सावित्री और गायत्री : ब्रह्मा की पहली पत्नी का नाम सावित्री थीं। ब्रह्मा ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिसका नाम गायत्री है। जाट इतिहास अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण विख्यात थी। पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस वक्त उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी। यज्ञ का मुहूर्त निकला जा रहा था ऐसे में ब्रह्माजी ने गायत्री से विवाह कर यज्ञ प्रारंभ किया लेकिन जब सावित्री वहां पहुंची तो उन्होंने बगल में गायत्री को बैठा देखकर ब्रह्माजी को श्राप दे दिया।
माता सरस्वती के बारे में: पुराणों में सरस्वती के बारे में भिन्न-भिन्न मत मिलते हैं। पुराणों में ब्रह्मा के मानस पुत्रों का जिक्र है लेकिन सरस्वतीजी ब्रह्माजी की पुत्रीरूप से प्रकट हुईं ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। एक अन्य पौराणिक उल्लेख अनुसार देवी महालक्ष्मी (लक्ष्मी नहीं) से जो उनका सत्व प्रधान रूप उत्पन्न हुआ, देवी का वही रूप सरस्वती कहलाया।
सरस्वती उत्पत्ति कथा : हिन्दू धर्म के दो ग्रंथों ‘सरस्वती पुराण’ और ‘मत्स्य पुराण’ में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का सरस्वती से विवाह करने का प्रसंग है जिसके फलस्वरूप इस धरती के प्रथम मानव ‘मनु’ का जन्म हुआ। कुछ विद्वान मनु की पत्नीं शतरूपा को ही सरस्वती मानते हैं। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण वह संगीत की देवी भी हैं। वसंत पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं।
सरस्वती उत्पत्ति कथा मत्स्य पुराण अनुसार : मत्स्य पुराण में यह कथा थोड़ी सी भिन्न है। मत्स्य पुराण अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कालांतर में उनका पांचवां सिर शिवजी ने काट दिया था जिसके चलते उनका नाम कापालिक पड़ा। एक अन्य मान्यता अनुसार उनका ये सिर काल भैरव ने काट दिया था।
कहा जाता है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो वह इस समस्त ब्रह्मांड में अकेले थे। ऐसे में उन्होंने अपने मुख से सरस्वती, सान्ध्य, ब्राह्मी को उत्पन्न किया। ब्रह्मा अपनी ही बनाई हुई रचना, सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि डाले रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारों दिशाओं में छिपती रहीं लेकिन वह उनसे नहीं बच पाईं। इसलिए सरस्वती आकाश में जाकर छिप गईं, लेकिन अपने पांचवें सिर से ब्रह्मा ने उन्हें आकाश में भी खोज निकाला और उनसे सृष्टि की रचना में सहयोग करने का निवेदन किया। सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम स्वयंभु मनु को जन्म दिया। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है।
मान्यता अनुसार सरस्वती ने वेदज्ञ पुरूरवा से भी संबंध बनाए थे जिसके चलते उनको एक पुत्र हुआ जिसका नाम ‘सरस्वान्’ रखा गया। जब ब्रह्मा को इसका पता चला तो उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दे दिया। भयभीता सरस्वती गंगा मां की शरण में जा पहुंची। गंगा के कहने पर ब्रह्मा ने सरस्वती को शाप-मुक्त कर दिया। शापवश ही वह मृत्युलोक में कहीं दृश्य और कहीं अदृश्य रूप में रहने लगी।
पांचवां सिर : एक पौराणिक कथा के अनुसार, रति देवी के पति कामदेव को तप करने के बाद ब्रह्माजी ने तीन ऐसे तीर प्रदान किए जिससे किसी को भी कामासक्त किया जा सकता था। कामदेव ने उन तीरों की शक्ति की परीक्षा के उद्देश्य से एक तीर ब्रह्माजी पर ही छोड़ दिया। ऐसे में ब्रह्माजी पर इसका असर हुआ और उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति से शतरूपा देवी का सृजन किया। ब्रह्माजी अपने द्वारा उत्पन्न शतरूपा के प्रति आकृष्ट हो गए तथा उन्हें टकटकी बांध कर निहारने लगे। शतरूपा ने ब्रह्मा की दृष्टि से बचने की हर कोशिश की किंतु असफल रहीं। ऐसे में शतरूपा ऊपर की ओर देखने लगीं तो ब्रह्माजी अपना एक सिर ऊपर की विकसित कर दिया।
भगवान शिव ब्रह्माजी की इस हरकत को देख रहे थे। शिव की दृष्टि में शतरूपा ब्रह्मा की पुत्री सदृश थीं इसीलिए उन्हें यह घोर पाप लगा। इससे क्रुद्ध होकर शिवजी ने ब्रह्मा का सिर काट डाला। भगवान शिव द्वारा काटा गया पांचवां सिर बद्रीनाथ परिक्षेत्र में गिरा। यह स्थान आज ब्रह्म कपाल के रूप में विख्यात है। यहां पर लोग अपने पितरों का तर्पण एवं पिण्डदान करके उन्हें मोक्ष प्राप्त होने की कामना करते हैं।
भगवान शिव ने इसके अतिरिक्त भी ब्रह्माजी को शाप के रूप में दंड दिया। इस शाप के अनुसार त्रिदेवों में शामिल ब्रह्मा जी की पूजा-उपासना नहीं होगी। शिव पुराण के अनुसार ब्रह्मा और शतरूपा के संयोग से ही स्वयंभू मनु का जन्म हुआ और इन्हीं मनु से मानव की उत्पत्ति हुई।
पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस वक्त उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी। उनकी पत्नी सावित्री वक्त पर यज्ञ स्थल पर नहीं पहुंच पाईं। यज्ञ का समय निकल रहा था। लिहाजा ब्रह्माजी ने एक स्थानीय ग्वाल बाला गायत्री से शादी कर ली और यज्ञ में बैठ गए। जाट इतिहास अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण विख्यात थी और जाट ही थी।
सावित्री थोड़ी देर से पहुंचीं। लेकिन यज्ञ में अपनी जगह पर किसी और औरत को देखकर गुस्से से पागल हो गईं। उन्होंने ब्रह्माजी को शाप दिया कि जाओ इस पृथ्वी लोक में तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रुप को देखकर सभी देवता लोग डर गए। उन्होंने उनसे विनती की कि अपना शाप वापस ले लीजिए। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में आपकी पूजा होगी। कोई भी दूसरा आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा।
ब्रह्माजी ने पुष्कर झील किनारे कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक यज्ञ किया था, जिसकी स्मृति में अनादि काल से यहां कार्तिक मेला लगता आ रहा है। यहां विश्व में ब्रह्माजी का एकमात्र प्राचीन मंदिर है। मंदिर के पीछे रत्नागिरि पहाड़ पर जमीन तल से दो हजार तीन सौ 69 फुट की ऊंचाई पर ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री का मंदिर है। झील की उत्पत्ति के बारे में किंवदंती है कि ब्रह्माजी के हाथ से यहीं पर कमल पुष्प गिरने से जल प्रस्फुटित हुआ जिससे इस झील का उद्भव हुआ। राजस्थान में अजमेर शहर से 14 किलोमीटर दूर पुष्कर झील है। पुष्कर के उद्भव का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है।
प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। दूसरा कारण यह की ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था।
जगत पिता ब्रह्माजी की काया कांतिमय और मनमोहक थी। उनके मनमोहक रूप को देखकर स्वर्ग अप्सरा मोहिनी नाम कामासक्त हो गई और वह समाधि में लीन ब्रह्माजी के समीप ही आसन लगाकर बैठ गई। जब ब्रह्माजी की तांद्रा टूटी तो उन्होंने मोहिनी से पूछा, देवी! आप स्वर्ग का त्याग कर मेरे समीप क्यों बैठी हैं?
मोहिनी ने कहा, 'हे ब्रह्मदेव! मेरा तन और मन आपके प्रति प्रेममत्त हो रहा है। कृपया आप मेरा प्रेम स्वीकार करें।
ब्रह्मजी मोहिनी के कामभाव को दूर करने के लिए उसे नीतिपूर्ण ज्ञान देने लगे लेकिन मोहिनी ब्रह्माजी को अपनी ओर असक्त करने के लिए कामुक अदाओं से रिझाने लगी। ब्रह्माजी उसके मोहपाश से बचने के लिए अपने इष्ट श्रीहरि को याद करने लगे।
उसी समय सप्तऋषियों का ब्रह्मलोक में आगमन हुआ। सप्तऋषियों ने ब्रह्माजी के समीप मोहिनी को देखकर उन से पूछा, यह रूपवति अप्सरा आप के साथ क्यों बैठी है? ब्रह्मा जी बोले, 'यह अप्सरा नृत्य करते-करते थक गई थी विश्राम करने के लिए पुत्री भाव से मेरे समीप बैठी है।
सप्तऋषियों ने अपने योग बल से ब्रह्माजी की मिथ्या भाषा को जान लिया और मुस्कुरा कर वहां से प्रस्थान कर गए। ब्रह्माजी के अपने प्रति ऐसे वचन सुनकर मोहिनी को बहुत गुस्सा आया। मोहिनी बोली, मैं आपसे अपनी काम इच्छाओं की पूर्ति चाहती थी और आपने मुझे पुत्री का दर्जा दिया। अपने मन पर संयम होने का बड़ा घमंड है आपको तभी आपने मेरे प्रेम को ठुकराया। यदि मैं सच्चे हृदय से आपसे प्रेम करती हूं तो जगत में आपको पूजा नहीं जाएगा।
पुराणों अनुसार ब्रह्माजी के पुत्र:- ब्रह्मा के कितने पुत्र थे यह कहना मुश्किल होगा क्योंकि पुराणों में इनके पुत्रों की संख्या भिन्न भिन्न बताई गई है। यहां प्रस्तुत है प्रमुख पुत्रों के नाम, जिसमें से उनके मानस पुत्र भी थे। ब्रह्मा की इन पुत्रों को प्रजापति कहा गया है। इन पुत्रों से ही धरती के सभी मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है। अर्थात यही सभी धरती के मनुष्यों के पूर्वज हैं।
ब्रह्मा के कुल पुत्र- : विश्वकर्मा, अधर्म, अलक्ष्मी, 8 वसु, 4 कुमार, 7 मनु, 11 रुद्र, पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मरीचि, अपांतरतमा, वशिष्ट, प्रचेता, हंस, यति आदि मिलाकर कुल 59 पुत्र थे। इन्हीं में ब्रह्मा के मानस पुत्र भी हैं।
ब्रह्मा के प्रमुख 10 पुत्र : 1. अत्रि, 2. अंगिरस, 3. भृगु, 4. कंदर्भ, 5. वशिष्ठ, 6. दक्ष, 7. स्वायंभुव मनु, 8. कृतु, 9. पुलह, 10. पुलस्त्य। उक्त से धरती के 10 कुलों या कबीलों का निर्माण हुआ।
ब्रह्मा के मानस पुत्र : 1. मन से मरीचि, 2. नेत्र से अत्रि, 3. मुख से अंगिरस, 4. कान से पुलस्त्य, 5. नाभि से पुलह, 6. हाथ से कृतु, 7. त्वचा से भृगु, 8. प्राण से वशिष्ठ, 9. अंगुष्ठ से दक्ष, 10. छाया से कंदर्भ, 11. गोद से नारद, 12. इच्छा से सनक, सनंदन, सनातन और सनतकुमार, 13. शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा अंत में 14. ध्यान से चित्रगुप्त।
ब्रह्मा पुत्र ऋषि भृगु की पुत्री माता लक्ष्मी थीं। लक्ष्मी की माता का नाम ख्याति था। महर्षि भृगु विष्णु के श्वसुर, शिव के साढू और राजा दक्ष के भाई थे। दक्ष की पुत्री सती से शिव ने विवाह किया था।
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।
इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्ध-नारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।
प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वायंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति है। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाहा का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
भागवतादि पुराणों के अनुसार भगवान रुद्र भी ब्रह्माजी के ललाट से उत्पन्न हुए। मानव-सृष्टि के मूल महाराज मनु उनके दक्षिण भाग से उत्पन्न हुए और वाम भाग से शतरूपा की उत्पत्ति हुई। स्वायम्भुव मनु और महारानी शतरूपा से मैथुरी-सृष्टि प्रारम्भ हुई।
ब्रह्मा की उम्र : ब्रह्माजी की आयु 100 वर्षो की है, लेकिन ये सौ वर्ष मनुष्यों के सौ वर्ष नहीं है। दरअसल, मनुष्यों के एक साल (365 दिन) के बराबर देवताओं का एक दिन होता है, उत्तरायण उनका दिन और दक्षिणायन उनकी रात है। वैसे ही देवताओं के एक वर्ष के बराबर ब्रह्माजी का एक दिन होता है।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान् कृष्ण ने ब्रह्मा के दिन को मनुष्यों के एक हजार चतुर्युग के बराबर बताया है और रात भी उतनी ही लम्बी। भगवान ब्रह्मा ने कल्प के प्रारंभ में मनुष्यों का और जीवन का निर्माण किया। तब उनकी उनकी रात्रि होगी तब धरती पर प्रलय की शुरुआत होगी और सभी कुछ शून्य हो जाएगा। फिर जब पुनः ब्रह्मा का दिन प्रारंभ होगा तब फिर सृष्टि का निर्माण होगा। अभी 28वें वैवस्त मनु और चौदहवें ही इंद्र का राज्य चल रहा है, इसके मुताबिक ब्रह्माजी की उम्र अभी तेरह दिन हुई है और चौदहवां दिन चालू है। अब इस लिहाज से अगर सौ वर्षो की उनकी उम्र मानी जाए तो उनकी उम्र तो अभी बहुत लंबी है। ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक में रहते हैं।
एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य वर्ष कहते हैं।
12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग)
71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल)
चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है। महत कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प, ब्रह्म कल्प, पद्म कल्प बीत चुका है। यह वराह कल्प चल रहा है। वराह कल्प की शुरुआत विष्णु के नील वराह अवतार से होती है। इस कल्प में ब्रह्मा ने सृष्टि की फिर से शुरुआत की थी।
मन्वंतर की अवधि : विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। एक मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष।
इस कल्प में 6 मन्वंतर अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब 7वां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु की संतानों का काल माना जाता है। 27वां चतुर्युगी बीत चुका है। वर्तमान में यह 28वें चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है और यह कलियुग चल रहा है।
क्या ब्रह्मा ने बनाए थे विशालकाय मानव : हम इस खबर की पुष्टि नहीं करते हैं। फेसबुक पर मिली खबर के अनुसार भारत के उत्तरी क्षेत्र में खुदाई के समय नेशनल ज्योग्राफिक (भारतीय प्रभाग) को 22 फुट का विशाल नरकंकाल मिला है। उत्तर के रेगिस्तानी इलाके में एम्प्टी क्षेत्र के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र सेना के नियंत्रण में है। यह वही इलाका है, जहां से कभी प्राचीनकाल में सरस्वती नदी बहती थी।
इसके अलावा यहां खुदाई करने पर टीम को कुछ शिलालेख भी मिले जिसमें ब्राह्मी लिपी में कुछ अंकित है। इस भाषा का विशेषज्ञों ने अनुवाद किया।
इसमें लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के विशालकय मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।
ब्रह्मा के वरदान : अक्सर देवता (सुर) और दैत्य (असुर) प्रतिद्वंदिता के चलते अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए ब्रह्मा की तपस्या करके उनसे अजर अमर होना का वरदान प्राप्त करते रहते हैं। इसके अलावा भी सामान्य मनुष्यों ने भी ब्रह्मा की तपस्या करने वरदान हासिल किए हैं। विप्रचित्ति, तारक, हिरण्यकशिपु, रावण, गजासुर तथा त्रिपुर आदि असुरों को इन्होंने ही वरदान देकर अवध्य कर डाला था।
ब्रह्माजी ने कई असुरों के अलावा राक्षस को भी वरदान दिए थे। जैसे कुंभकर्ण को निंद्रा का वरदान दिया था तो दूसरी ओर मेघनाद को अवध्य होने का। इंद्र को छोड़ने के बदले मेघनाथ ने ब्रह्मा से अमरता का वरदान मांगा. ब्रह्मा ने अमरता देने से मना कर दिया, लेकिन उसे वरदान दिया कि कोई भी युद्ध में मेघनाथ को नहीं हरा सकता. लेकिन इस पर भी एक शर्त रखी कि हर युद्ध से पहले उसे अपने पर्थयांगिरा देवी के लिए यज्ञ करना पड़ेगा. साथ ही ब्रह्मा ने मेघनाथ को इंद्रजीत नाम भी दिया। विभिषण को सदैव धर्म के मार्ग पर चलने का वरदान दिया था। रावण को भी ब्रह्मा से वरदान मिला था। उसने यह वरदान मांगा था कि मुझे कोई देव, दैत्य, दानव और राक्षस नहीं मार सके। उसने मानव और वानर का नाम इसलिए नहीं लिया क्योंकि इन्हें वह तुच्छ समझता था।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप को भी ब्रह्मा ने उनके अनुसार अजर अमर होने के वरदान दिया था। दोनों के वरदान की कहानी प्रसिद्ध है। दारुक, रम्म और अरम्म, महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ, चंड मुंड, रक्तबिज आदि को वरदान दिए थे। ब्रह्माजी ने कामदेव को भी वरदान दिया था। इस तरह देखा जाए तो ब्रह्मा के वरदानों की जितनी लंबी लिस्ट है उतनी ही उनके शापों की भी है।
भगवान तो सर्वशक्तिमान होते हैं, जिनके आगे किसी की नहीं चलती है. लेकिन कई बार ऐसे मौके भी आए, जब भगवान को भी झुकने लिए मजबूर होना पड़ा. उन्हें भी हाथ जोड़कर करनी पड़ी प्रार्थना, तब जाकर उनके जीवन में खुशियां लौटीं.सृष्टि की रचना परमपिता ब्रह्मा ने की, यह तो सभी जानते हैं. लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि एक बार ब्रह्मा से भी भारी भूल हो गई थी. एक ऐसी भूल, जिससे उनकी पत्नी न सिर्फ उनसे रूठ गईं, बल्कि हमेशा-हमेशा के लिए उनका साथ भी छोड़ गईं. यही नहीं, पत्नी के गुस्से का ही यह परिणाम था कि आज सृष्टि की रचना करने वाले की पूजा सिर्फ पुष्कर में ही होती है.
दूर पहाड़ों की चोटी पर विराजती हैं सावित्री, परमपिता ब्रह्मा की अर्द्धांगिनी सावित्री. लेकिन यहां सावित्री रूठी हुई हैं, नाराज हैं. यही वजह है कि ब्रह्मा के मंदिर से बिल्कुल अलग-थलग उन्होंने पहाड़ पर अपना बसेरा बनाया हुआ है. आप सोच रहे होंगे कि सावित्री आखिर किस बात पर ब्रह्मा से नाराज हैं? क्यों वे अपने पति से अलग मंदिर में विराजती हैं?
इस सवाल का जवाब छुपा है पुष्कर के मंदिर में. यह मंदिर न सिर्फ ब्रह्मा और सावित्री के बीच दूरी बढ़ने की कहानी कहती है, बल्कि उन दोनों के रिश्ते टूटने के किस्से पर भी मुहर लगाती है. दरअसल, परमपिता ब्रह्मा और सावित्री के बीच दूरियां उस वक्त बढ़ीं, जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के लिए पुष्कर में यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में पत्नी का बैठना जरूरी था, लेकिन सावित्री को पहुंचने में देरी हो गई.
पूजा का शुभ मुहूर्त बीतता जा रहा था. सभी देवी-देवता एक-एक करके यज्ञ स्थली पर पहुंचते गए. लेकिन सावित्री का कोई अता-पता नहीं था. कहते हैं कि जब शुभ मुहूर्त निकलने लगा, तब कोई उपाय न देखकर ब्रह्मा ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया और उनसे विवाह कर अपना यज्ञ पूरा किया. उधर सावित्री जब यज्ञस्थली पहुंचीं, तो वहां ब्रह्मा के बगल में गायत्री को बैठे देख क्रोधित हो गईं और उन्होंने ब्रह्मा को श्राप दे दिया.
सावित्री का गुस्सा इतने में ही शांत नहीं हुआ. उन्होंने विवाह कराने वाले ब्राह्मण को भी श्राप दिया कि चाहे जितना दान मिले, ब्राह्मण कभी संतुष्ट नहीं होंगे. गाय को कलियुग में गंदगी खाने और नारद को आजीवन कुंवारा रहने का श्राप दिया. अग्निदेव भी सावित्री के कोप से बच नहीं पाए. उन्हें भी कलियुग में अपमानित होने का श्राप मिला.
क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर के पास मौजूद पहाड़ियों पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और फिर वहीं की होकर रह गईं. कहते हैं कि यहीं रहकर सावित्री भक्तों का कल्याण करती हैं.
पुष्कर में जितनी अहमियत ब्रह्मा की है, उतनी ही सावित्री की भी है. सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है. यह मान्यता है कि यहां पूजा करने से सुहाग की लंबी उम्र होती है. यही वजह है कि महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और सावित्री से पति की लंबी उम्र मांगती हैं.
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